एक आदमी जिसने अपनी सारी जीवन-निवेश एक नए अपार्टमेंट में लगा दी, तब उसे पता चलता है कि उसकी दीवारें अजीब आवाज़ों, शत्रुतापूर्ण पड़ोसियों और छिपे हुए रहस्यों से भरी हैं। शुरुआत में छोटे संकेतों को सहजता से नज़रअंदाज़ किया जाता है, लेकिन धीरे-धीरे घर एक उभरती चिंता का केंद्र बन जाता है जहाँ हर दरार और हर फुसफुसाहट उसकी अस्थिरता को बढ़ाती है। किरायेदारों के मायने बदलते रिश्तों और पड़ोस की दु:स्वाभाविकता के बीच वह आदमी अपनी पसंद और व्यवहार के बारे में सवाल करने लगता है।
फिल्म क्लॉस्ट्रोफोबिक थ्रिलर की तरह काम करती है, जहाँ साउंड डिज़ाइन और कैमरावर्क दर्शक को लगातार तनाव में रखते हैं। यह कहानी भरोसे, पहचान और शहरी अकेलेपन की परतों को उतरते हुए दिखाती है, और धीरे-धीरे यह साबित करती है कि कभी-कभी सबसे बड़ी धमकी दीवारों के भीतर नहीं बल्कि मन के भीतर होती है। अंत तक कथा ऐसे मोड़ ले आती है कि दर्शक लंबे समय तक सोचते और बेचैन रहते हैं।