एक पुराने कॉलेज रीयूनियन के बहाने एक सप्ताहांत की छुट्टियों पर जाने वाला पिटे अपने दोस्तों के बीच असहज महसूस करता है। शुरुआत में हल्के मज़ाक और पुरानी यादों की बातें चलती हैं, लेकिन धीरे-धीरे छोटे-छोटे संकेत और संदिग्ध व्यवहार उसे यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि कहीं उसके दोस्त उसके खिलाफ तो नहीं। जैसे-जैसे समय बीतता है, पार्टी की सीमाएँ टूटती हैं और पिटे की शंका बढ़ती जाती है कि क्या यह सिर्फ़ पराया-पन और शराब के नशे का असर है या कोई सच्ची साज़िश चल रही है।
फिल्म काले हास्य और मनोवैज्ञानिक थ्रिलर के तत्वों को मिलाकर दोस्ती, असुरक्षा और सामाजिक दबाव की पड़ताल करती है। निर्देशक माहौल और संवादों के ज़रिये दर्शक में निरंतर अनिश्चय बनाए रखते हैं—कभी हँसी तो कभी बेचैनी। इसकी कुशल अभिनय-प्रदर्शन और टोन की अनिश्चितता इस बात पर सवाल छोड़ देती है कि क्या पिटे की परेशानी उसके अपने मन की उपज है या उसके आसपास के लोग वाकई बदल गए हैं।