एक मेहनती अकेली माँ की छोटी-छोटी परेशानियाँ एक भीषण दिन में इतनी बढ़ जाती हैं कि वह अपनी सीमाओं पर पहुंच जाती है। काम की थकान, आर्थिक तंगी और समाज की उदासीनता के बीच उसकी टूटन धीरे-धीरे चरम पर पहुंचती है, और एक पल में वह ऐसा कदम उठाती है जो उसकी ज़िन्दगी और आसपास के लोगों की हदें बदल देता है। फिल्म इस निर्णायक क्षण का सस्पेंस और संवेदना के साथ चित्रण करती है, जहाँ दर्शक हर छोटे-छोटे कारण को जोड़कर पूछते हैं — आख़िरकार वह कौन सी आख़िरी घास थी जिसने उसे तोड़ दिया?
यह कहानी न्याय, दया और जिम्मेदारी के जटिल सवाल उठाती है, और केवल नतीजे की ओर नहीं बल्कि उस कठिन अंदरूनी संघर्ष की ओर भी ध्यान खींचती है जिसने उसे उस कदम पर ला दिया। कच्चे भावों, तीव्र अभिनय और समाज पर एक तेज टिप्पणी के साथ यह फिल्म दर्शक को यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि जब व्यवस्था नज़रअंदाज़ कर दे तो एक सामान्य इंसान की सीमाएँ कैसे पार हो जाती हैं।