एक तलाकशुदा अध्यापिका अचानक ही बीमारी सी शक की आग में जल उठती है — न केवल अपने निजी रिश्तों पर, बल्कि अपनी बेटी, दोस्तों और पड़ोसियों पर भी उसे ईर्ष्या होने लगती है। छोटी-छोटी बातों को वह बड़े इशारों और संकेतों के तौर पर देखने लगती है, जिससे उसके व्यवहार में अकस्मात बदलाव और संदिग्धता आ जाती है। इससे घर का वातावरण जर्जर होता जाता है और गुज़रती हर बातचीत में तनाव घुलने लगता है, जबकि आसपास के लोग उसके बदलते चेहरे को समझने की कोशिश में उलझे रहते हैं।
फिल्म इस मानसिक उत्कंठा और अविश्वास की स्थिति का सूक्ष्म, लेकिन तीव्र मनोवैज्ञानिक अध्ययन呈 करती है, जहाँ अकेलापन, पहचान की दरारें और संबंधों का टूटना प्रमुख विषय बनते हैं। कथानक धीरे-धीरे चरित्र की अंदरूनी दुनिया की परतें खोलता है और दिखाता है कि कैसे एक छोटी सी असुरक्षा पूरे समुदाय को प्रभावित कर सकती है। यह एक संकोच-भरी, संवेदनशील लेकिन परेशान कर देने वाली यात्रा है जो दर्शक को रिश्तों और आत्म-धारणा पर सोचने के लिए मजबूर करती है।