एक 70 वर्षीय आदमी अपनी डिमेंशिया से जूझती पत्नी को वृद्धाश्रम से उठाकर अपने साथ खिसक जाता है, और दोनों पुलिस तथा उनके परिपक्व बच्चों के पीछा करते हुए अनिश्चित रास्तों पर निकल पड़ते हैं। सतह पर यह एक नाटकीय पीछा कहानी है, लेकिन फिल्म का असली केंद्र बुज़ुर्ग पति और पत्नी के बीच बची हुई नाजुक यादों, दायित्व और प्रेम की आँखों में झलकती उलझन है। हर मोड़ पर परिवार, कानून और सहानुभूति के बीच जटिल नैतिक सवाल उठते हैं, जो दर्शक को सहज ही न्याय का फैसला करने नहीं देते।
किरदारों की संवेदनशील अदाकारी और धीमी, पर असरदार पटकथा इस कहानी को मानवीय बनाती है — जहाँ कभी-कभी उग्रता की जगह खामोशी ही सबसे तेज बयान होती है। यह फिल्म उम्र, भूल और मानवीय मर्यादा पर एक मार्मिक और-provocative नजर डालती है, दर्शाते हुए कि किसी के "अच्छे इरादों" के पीछे कितनी उलझनें और कीमतें छुपी हो सकती हैं।