एक कटु और नीरस कानून के छात्र, जीवन में किसी अर्थ की तलाश में, जब अराजकतावादी समूह से मिलता है तो उसे बदलाव की चमक दिखती है। समूह की तेज़बाज़ी और बग़ावत की भाषा पहले उसे प्रेरित करती है, पर जल्द ही उसका आदर्शवाद साजिश और अपराध की जटिलताओं में उलझने लगता है। फिल्म दिखाती है कि एक खोजी युवा कैसे समूह की उम्मीदों और अपनी नैतिक सीमाओं के बीच फँस कर धीमे-धीमे खुद को खोने लगता है।
धीरे-धीरे वह खुद को योजनाओं का स्थानापन्न खिलौना पाता है — न तो पूरी तरह खिलाड़ी, न ही मात्र दर्शक। घटनाओं की लहरें उसकी पहचान, न्याय और जवाबदेही की धारणा को चुनौती देती हैं और दर्शक से यह सवाल कराती हैं कि सच्चा जीवन क्या होता है जब आप ही मार्जिन पर होते हैं। यह मानवीय कमजोरियों, राजनीति और व्यक्तिगत चुनावों की तीखी पड़ताल है जो अंत तक बेचैनी और सोच छोड़ जाती है।