जब एक लोक-उच्च विद्यालय को जर्मन शरणार्थियों के लिए कैद शिविर में बदल दिया जाता है, तो प्रधानाध्यापक जोड़ा याकूब और लिस और उनके बच्चे एक असंभव मोड़ का सामना करते हैं। रोज़मर्रा की सामान्यता अचानक भय और अनिश्चितता में बदल जाती है — कैद के भय, पड़ोसियों की निगाहें और सरकारी आदेशों के बीच परवरिश और मानवीय संवेदना को बनाए रखना चुनौती बन जाता है। परिवार के भीतर छोटी-छोटी इच्छाएँ और बड़े सिद्धांत आपस में टकराते हैं, और हर फैसला किसी की रक्षा या किसी की गलती बन सकता है।
फिल्म मानवीय निर्णयों की सूक्ष्मता और नैतिक जटिलताओं को धीरे-धीरे खोलती है, जहाँ मदद करना, छुपाना या चुप रहना सब ही जोखिम लिए हुए विकल्प हैं। कड़वी वास्तविकता में प्रेम, डर और उम्मीद के बीच संतुलन बनाने की कोशिशें दृश्यों में गहरे असर छोड़ती हैं, और दर्शक को यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि कठिन समय में इंसान किस हद तक अपने सिद्धांतों के साथ खड़ा रह पाएगा।